बिहार में जातिगत जनगणना लागू होने से राजनीतिक घमासान छीड़ चुका है। 2 अक्टूबर 2023 को ज.द.(यू) नेता नीतीश कुमार नें जाति आधारित गणनाओं के आंकड़े जारी कर दिये। माना जा रहा है कि 2024 के चुनावी संग्राम में बीजेपी को टक्कर देने के लिए जातिगत जनगणना एक अहम मुद्दा हो सकता हैं। यही कारण है कि आई,एन.डी.आई.ए गठबंधन समेत बड़ी पार्टियों ने अपनी सियासी रणनीति इसके अधीन ही पिरों ली हैं। एक तरफ़ जहां आई,एन.डी.आई.ए गठबंधन जातिगत जनगणना को लेकर अपनी आवाज़ बुलंद कर रहा है, वहीं दूसरी ओर खुद प्रधानमंत्री नें गरीब कल्याण को सर्वोपरि बताया है। अब सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में हमें जातिगत जनगणना की जरुरत हैं या यह सब ध्रुवीकरण की राजनीति को सरल बनाने के मायनें है।
भारत में लंबे समय से धर्म और जाति की राजनीति हुई हैं। आज के परिवेश में भी वोट बैंक साधने का सबसे आसान तरीका धर्म और जाति की राजनीति ही है। सन् 1990 में वी.पी. सिंह की सरकार ने जातिगत जनगणना की राजनीति को सरकार गिरने से बचाने का मजबूत माध्यम बनाया था। राजनीतिक उतार-चढ़ाव के दौरान जनता को लुभाने के लिए मंडल आयोग की सिफारिश को लागू कर दिया गया। दरसल, म़ंडल आयोग का गठन मोरारजी देसाई की सरकार ने ओबीसी वर्ग की गिनती और उन्हे आरक्षण देने के लिए किया था। अस्तित्व में आने के दो साल बाद आयोग नें रपट जारी किया लेकिन तब तक सत्ता इंद्रिरा गांधी के पास चली गई थी। जिस कारण अगले 9 वर्षों के लिए रपट स्थगित हो गई। रपट के अनुसार, कुल आबादी में 52% ओबीसी वर्ग को सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देने को कहा गया। 1990 में जब ओबीसी वोट बैंको की जरुरत पड़ी तब तत्कालिन वी.पी. सिंह सरकार ने मंडल-1 के आधार पर सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण लागू कर दिए। ऐसी ही जब सन् 2006 में यूपीए की सरकार कमजोर हो रही थी तब मंडल-2 आधारित शिक्षण संस्थानों में आरक्षण लागू कर दिया। इसका मतलब यह है कि ये आंकड़े और गणनाएं केवल राजनीतिक हितो को साधने का सबसे मजबुत माध्यम हैं। वास्तव में, शोषित और प्रताड़ित वर्गो को सामाजिक न्याय और बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए अंबेडकर जी द्वारा आरक्षण की मांग की गई थी। जिसे बाद में पूर्ण सहमति के साथ संविधान में शामिल किया गया था।
एक समय था जब छुआछुत, भेदभाव जैसी सामाजिक कुरुतियों हम सभी के बीच थी। उच्च-नीच के भेद से समाज बँटा हुआ था। जहां एक तरफ मंदिर में प्रवेश मिलना मुश्किल था, वहीं दूसरी ओर पानी से लेकर शौचालय तक के लिए संघर्ष करना पड़ता था। छोटी जाति या दलित होना एक अभिशाप जैसा होता था। इसलिए समाज में आरक्षण लागू करनें की जरुरत थी। आज हम आजादी के 75 वें महोत्सव के जश्न में डूबे है। बहुत जल्द हम अपनी आजादी की पहली शताब्दी का जश्न मना रहे होंगे। इस अंतराल में हमने समय के साथ हमारे सामाजिक व्यवस्था में गहन बदलाव महसूस किया है। वर्ण व्यवस्था से पूंजी व्यवस्था की ओर जीवन का परिवर्तन देखा है। आर्थिक संपन्नता को हासिल करने के पीछे संपूर्ण जगत चलने लगा है। प्रत्येक व्यक्ति कि मंशा मोटी कमाई करने की है। आर्थिक रूप से सशक्त व्यक्ति शिक्षा ग्रहण कर सकता है और कौशलता हासिल करने के बाद शायद कोई भी ऐसी कंपनी या वर्किंग प्लेस नहीं जो उसे नौकरी ना दें। प्रत्येक नौकरी देने वाले को वह योग्य व्यक्ति चाहिए जो उसकी आमदनी को बढ़ाने का सामर्थ्य रखता हो। यदि जाति या धर्म देखकर किसी को नौकरी मिल भी जाती है तो भी बिना योग्यता के टिक पाना बेहद मुश्किल है। वर्तमान परिवेश में किसी व्यक्ति को उसकी जाति के आधार पर पिछड़ा कहना गलत है। आज धन ही सबसे बड़ी ताकत है। धनवान, नोटों का स्वांग रचकर कोई भी जंग जीत सकता है। दूसरी बात , आज नई पीढ़ी मां-पिता से मम्मी -डैडी के युग में आ गई है। वह पीढ़ी जिस पर पश्चात संस्कृति प्रभावी है, उसे अपनी जाति का ज्ञान होना ही बड़ी बात है। कई नौजवान तो अपने नाम के पीछे सरनेम लगाने से भी परहेज़ करते हैं। अब कक्षा में दोस्ती जाति देखकर नहीं बल्कि अच्छे सेंस ऑफ ह्यूमर वाले से होती है। इसका सीधा मतलब है की समाज से भेदभाव जैसा शब्द बहिष्कृत हो रहा हैं। नई पीढ़ी जातिवाद से ऊपर उठकर समानता की पक्षधर हैं। ब्राह्मण, भूमिहार, यादव गिनी-चुनी जातियों के नाम ही नहीं पीढ़ी के जहेन में है। कुछ वर्ष बीतने के बाद यह भी धूमिल हो जाएंगे। केवल आर्थिक संपन्नता ही, सही अवसर और सही सामाजिक स्थिति के पर्याय होंगे।
यह कहना भी ठीक है कि ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में जाति और धर्म का भेदभाव आज भी मौजूद है। आज भी लोग उच्च-नीच की संस्कृति को अपनातें हैं। छोटी जाति के हाथ से पानी न पीने की परंपरा चल रही है। साथ उठने बैठने में भी फर्क है। ऊंची जाति और नीचे जाति वालों का अपना अलग-अलग समुदाय हैं। जिससे यह कहना लाज़मी है कि जातिवाद हमारे समाज में निहित है। गौर की बात यह है कि जिन क्षेत्रों में जातिवाद पनप रहा है उन तक क्वालिटी एजुकेशन नहीं पहुंच रहा हैं। छोटी जाति के लोग आज भी गरीब हैं। विकसित क्षेत्र से कटे-छटे है। अशिक्षित व्यक्ति अपने अधिकारों से सदैव वंचित रहता है। संविधान ने सभी को बराबरी का अधिकार दिया है। शिक्षा ग्रहण कर जब उन्हें अपने अधिकार का पता चलेगा तो वे स्वत: जातिवाद भूल जाएंगे। पढ़ लिखकर पूंजीवादी समाज के हिस्सेदार बनेंगे।
ऐसे में वास्तविक सामाजिक संरचना को समझकर जातिगत नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर जनगणना कराई जानी चाहिए और देश की गरीबी दूर करने में नीतियां बनाई जानी चाहिए। आर्थिक रूप से पिछड़े व्यक्ति को आगे आने का अवसर प्रदान करना चाहिए। जिस दिन गरीबी खत्म होगी, उसे दिन शिक्षा का स्तर यानी साक्षरता दर बढ़ेगा और साक्षर व्यक्ति धर्म और जाति की राजनीति से बेहद ऊपर उठ जाएगा। तब राजनीतिक परिंदों के लिए भीड़ जुटा पाना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि इनके पास भीड़ जुटाना का सबसे सशक्त माध्यम धर्म या जाति नहीं होगा।
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